भगवान वाराह अवतार 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 110 वर्ष पहले की घटना
भगवान वाराह का अवतार 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 110 वर्ष पूर्व की घटना है। तब से अभी तक सनातन धर्म के उपासक भगवान बाराह का श्रद्धा और भक्ति के साथ स्मरण-पूजन करते आ रहे हैं। भगवान वाराह के अवतार की घटना श्वेत वाराह कल्प के प्रारंभ को है। वर्तमान में श्वेत वाराह कल्प चल रहा है। पिछले कल्प के अंत में प्रलय के कारण पृथ्वी रसातल में चली गई थी। भगवान वाराह ने रसातल से पृथ्वी का उद्धार किया था। जिस समय भगवान वाराह रसातल से पृथ्वी को निकालने का यत्र कर रहे थे महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने विघ्न डाला। उसने भगवान पर गदा से आक्रमण कर दिया। इससे क्रोधित होकर भगवान वाराह ने उसका वध कर दिया। हिरण्याक्ष मरीचिनंदन कश्यप जी के पुत्र थे। वह दक्ष की पुत्री दिति के गर्भ से उत्पन्न हुआ थे। दिति ने जुड़वा पुत्र उत्पन्न किए थे। इनमे से दूसरे थे हिरण्यकशिपु। प्रजापति कश्यप जी ने ही इनका नामकरण किया था। जो कश्यप जी के वीर्य से रिति के गर्भ में पहले स्थापित हुआ था। उसका नाम हिरणयकशिपु रखा और जो रिति के उदर मे पहले निकला वह हिरणयाक्ष के नाम से विख्यात हुआ। ये दोनों अपने पूर्व जन्म में भगवान विष्णु के धाम बैकुंठ में जय-विजय नाम के पार्षद थे। उस समय इन्होंने ब्रम्हाजी के.मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार का अपमान किया था। इन्हीं सनकादिन इन्ह श्राप दिया कि तुम बकुण्ठ से निकलकर उन पापमय योनियों में जाओ जहां काम, क्रोध, लोभ प्राणियों के ये तीन शत्रु निवास करते है। सनकादि वैकण्ठ भगवान से में आया होने पर भी देखने में पाच साल के बालकास मिलने के लिए पहुंचे थे। ये चारों कुमार तत्व ज्ञानी थे। ब्रम्हाजी की सृष्टि जान प र हमेशा दिगंबर वृत्ति में सृष्टि में विचरण करत रहत थे। भगवान के द्वारपाल जय-विजय समझ नहीं पाए और भगवान के पास जाने से रोक दिया जिसके कारण श्राप के भागी बने। श्राप भोगने के लिए इन्हें तीन बार दैत्यों के रूप में जन्म लेना पड़ा। पहले जन्म में ये हिरणयकशिपु और हिरण्याक्ष हुए। दूसरे जन्म में रावण और कुभकरण तथा तीसरे जन्म में शिशुपाल और कंश हुए। हिरण्यकशिपु ने अपनी भुजाओं के बल से लोकपालों सहित तीनों लोकों को वश में कर लिया था। उधर हिरण्याक्ष अनेक वर्षों तक समुद्र में घूमता रहा। वह घूमते-घूमते वरुण देव की राजधानी विभावपुरी में जा धमका। वहां पाताल लोक के स्वामी जलचरों के अधिपति वरूण जी का अपमान किया। इस पर वरुण जी ने उसे सलाह दी कि तुम अपनी शक्ति भगवान पुराण पुरुष के पास जाकर आजमाओं। अंततः भगवान वाराह में उसका काम तमाम कर दिया। उल्लेखनीय है कि भगवान बाराह अवतार इस कल्प में प्रारंभ में स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ। इस कल्प के पहले मनु स्वायम्भुव मनु बम्हाजी के पुत्र है। उनकी पत्नी थी शतस्पा। ब्रम्हाजी ने स्वार्थमुव मनु को आदेश दिया कि अपनी भार्या से अपने ही समान गुणवती संतति उत्पन्न करके धर्म पूर्वक पृथ्वी का पालन करो। उस समय पृथ्वी प्रलय के चलते जल में डुबू हुई थी। ब्रम्हाजी पृथ्वी को जल से बाहर लाने के लिए चिंतन कर रहे थे उसी समय उनके नासा छिद्र से वाराह-शिशु निकला। यह और कोई नहीं स्वयं यज्ञ पुरूष भगवान श्री हरि ही थे जिन्होंने पृथ्वी को जल के अपर व्यवहार योग्य स्थान में स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधार शक्ति। कर संचार किया।